सतगुरां भायी जो उग बारे आई,
धोखा भाग्या गरू मारे मन का।
कॉ लख धाऊ कॉ लख पाऊं,
पार न आया प्रेम गरू का।।टेर।।
दरस्या बना गरू परच्यों नहीं लागे,
धोखा न भागे डग डग का।
प्रथम परच्यों गुरूगम बचनां,
भला हिया अनेक संत का।।1।।
कोइक पंथ साढ़ा बारा बतावे,
अन्त करोड़ गरू गोरख का।
निन्यानु करोड़ में कबीर रमिया,
विश्वास पाया विश्वासी पंथ का।।2।।
कोइक हर ने दूर बतावे,
कोई कहता हर याही रहता।
खण्ड ब्रह्मण्ड भरपूर भरिया,
खाली खूणा कॉ कहता।।3।।
कोइक नाम तो सहस बतावे,
कोइ कहे अखर एक हेता।
धोखा भांगण सतगरू मल्या,
भेद बताया पद चौथा का।।4।।
महर कीदी मारा सतगरू दाता,
भेद बताया न अक्षर का।
गुजर गरीबो 'कनीरामजी' बोले,
मैं चाकर गरू चरणां का।।5।।
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