श्रंगी ऋषि संत कहावे,
सुणलो संत सुजान ।।जेली।।
विभाण्डक थे ऋषि महात्मा,
करते तपस्या भारी ।
सुन्दर और सुशील कहीजे,
जाणे दुनिया सारी ।
जिनकी कश्यप गौत्र कहावे
।।1।।
स्नान करने गये महात्मा,
एक समय के माई ।
ऋषि मुनि की शोभा देखने,
एक अप्सरा आई ।
अनका उर्वसी नाम कहावे
।।2।।
अप्सरा को देख संत का,
पारा खलक गया वाही ।
उसी समय में व्याकुल प्यासी,
दौड़ी हिरणी आई ।
पारा को पी गई जल के साथे
।।3।।
ब्रह्माजी का शाप से,
बणी अप्सरा हरणी ।
मुनि पुत्र को जन्म देकर,
बण जावेगी जरणी ।
फिर श्राप मुक्त हो जासी
।।4।।
श्रंगी ऋषि का जन्म हुआ,
श्राप छूटग्या हरणी का ।
माथे पर इक सिंग मुनि के,
फल पावेला करणी का ।
भगती में ध्यान लगावे
।।5।।
श्रंगी ऋषि रहे जंगल में,
पिता विभाण्डक साथ ।
गांव बस्ती में कभी न जावे,
न देखी औरत जात ।
ब्रह्मचारी धर्म निभावे ।।6।।
उन्ही दिनों अंग देश में,
लोमपाद हुए राजा ।
ब्राह्मणो सो कियो कपट,
और बंद किया दरवाजा ।
पुरोहित पर झूठो दोष लगावे
।।7।।
इस कारण काल पड़ गया,
दु:खी हुए नर नारी ।
राजा ने मुनियो से पूछा,
संकट आ गया भारी ।
तब पण्डित राय बतावे ।।8।।
विभाण्डक के पुत्र श्रंगी,
उनको लावो भाई ।
नगर में आते ही मुनि के,
जरूर बरखा आई ।
अब ऐसा ही यतन करावो ।।9।।
ब्राह्मणों से माफी मांगी,
गुनाह कराया माफ ।
राजा प्रजा हो गई राजी,
रस्ता हो गया साफ ।
कहो कौन मुनि को लावे ।।10।।
राजा ने वेश्याओं को बात,
बताई एक ।
मुनि को लावो नगर में,
होवे काम अनेक ।
श्राप से वेश्या सब घबरावे
।।11।।
नहीं जावे तो राजा मारे,
जावे तो मुनि देवे श्राप ।
लुभा कर लावो महात्मा को,
वही करेंगे माफ ।
ऐसे पकका निश्चय कर लेवे ।।12।।
राजा से सब लीनी सुविधा,
रूपया पैसा साधन ।
आश्रम बणाया नांव पर,
जैसे हो कोई कानन ।
जवान वेश्या साथ लेवे ।।13।।
विभाण्डक जब गये जंगल में,
पाया अच्छा मौका ।
एक वेश्या गई आश्रम में,
किया नृत्य अनोखा ।
अब मुनि को लगी लुभाने ।।14।।
मुख चूमे कभी पैर दबावे,
अंक में भर लेवे ।
गोद खेलकर हंसती जावे,
खाने को फल देवे ।
और कुछ पेय पदार्थ पिलावे ।।15।।
वेश्या के जाने पर मुनि को,
याद बराबर आवे ।
विभाण्डक ने आकर पूछा,
कौन कुटी में आवे ।
तब श्रंगी यूं बतलावे ।।16।।
ब्रह्मचारी एक जटाधारी,
संत यहां पधारे ।
सुन्दर कपड़े अंग पर सोहे,
अंग दिखते सारे ।
सुन्दर बदन सुहावे ।।17।।
छाती पर दो मांस पिण्ड है,
जिन पर रोम नहीं है ।
पतली कमर जांघ भी पतली,
पायल बाज रही है ।
ताली दे दे नाच नचावे ।।18।।
गौरा मुखड़ा तेज पुंज सा,
सुन्दर रूप सलोना ।
कजरारी आंखे थी सुन्दर,
न लम्बा न बौना ।
कुछ कहते बण नहीं आवे ।।19।।
छाती से छाती भिड़वाता,
पकड़ कोपीन दबाता ।
गोदी मे मुझ को ले लेता,
मजा बहुत ही आता ।
छाती के कोपीन उठाये ।।20।।
तरह तरह के दे के चुम्बन,
बहुत ही प्यार किया है ।
कोमल कोमल अंग मिलाकर,
अंक में दबा लिया है ।
मेरे मन में आनन्द आवे ।।21।।
मुझ को छोड़ कर चला गया,
अपने आश्रम पास ।
मिलने की इच्छा ले मन में,
मैं हो गया उदास ।
वां की बहुत ही याद सतावे ।।22।।
राक्षस बहुत ही फिरते बेटा,
सदा रहो हुसियार ।
तपस्या में बाधा डाले,
नहीं करना इतबार ।
ऐसे विभाण्डक समझावे ।।23।।
वेश्या ने फिर देखा मौका,
मुनि एकेला पाया ।
नांव भीतर बिठा करके,
नगरी में ले आया ।
महल में खूब करी मेहमानी ।।24।।
जैसे ही नगरी में पहुंचे,
हो गई बरखा भारी ।
तलाब नाले सारे ही भर गये,
खुशी हुए नर नारी ।
मिट गयो काल को हाको ।।25।।
लोमपाद राजा की इच्छा,
पूरी किन्ही नाथ ।
पुत्री शान्ता परणादी,
ऋषि श्रंगी के साथ ।
अब घर घर बंटे बधाई ।।26।।
विभाण्डक को खबर पड़ी तो,
कोप कीना भारी ।
राज पाट सब है आपका,
धन माया भी सारी ।
तब हुए महात्मा राजी ।।27।।
महाभारत में वेदव्यास ने,
ऐसे ही फरमाया ।
हरि चरणों में शीश नवाकर,
माली भैरू ने गाया ।
सुणताई बरखा होवे ।।28।।
तर्ज- थाने शंकर कह समझावे मान भवानी मान