या विध अचरज आवे हांसी,
नखे पीव कूंं न्यारा ढुढो,
भटके बिन विश्वासी।।टेर।।
पांच तीन बिच पच बह जावे,
सो चौकस चौरासी।
अन्तर माही निरन्तर निर्खो,
अलख पुरूष अविनासी।।१।।
जन्मे मरे मरे फिर जन्मे,
सो माया की फांसी।
पूर्ण ब्रह्म सकल घट व्यापक,
रहता गया न आसी।।२।।
सन्त विश्वासी सदा निवासी,
समझ समझ सुख पासी।
जागे जुगत सांयत के सागे,
सो कहिये सुख वासी।।३।।
हाल खुस्याल लाल लिव लागा,
उनमुन थका उदासी।
दीसत् दवे है निर्दावे,
जीव पिव एक समासी।।४।।
तनमन साज श्याम संग सागे,
निस दिन स्वांस उसासी।
कह ''लिखमो'' उन सन्तन को,
खिदमतदार कहासी।।५।।