भगतों की महिमा भारी,
जाणे संत सुजाण॥टेर॥
पदमपुर में लक्ष्मीदत्त जी,
ब्राह्मण हो गये भाई।
ईश्वर की भगती में रहते,
दोनों धणी लुगाई।
प्रभुजी सब ही बात सुधारी॥1॥
संत रूप में आकर प्रभु ने,
बात यह बतलाई।
बेटा होगा भक्तिवान,
जो करसी पुण्य कमाई।
तुम मानों बात हमारी॥2॥
संवत 1347 मगसर,
सुदी के मांई।
बीज गरूवार धन लगन में,
जनम लियो है भाई।
जांरी रूपादेवी महारानी॥3॥
रांका जी है नाम भगत को,
भगती में परवीण।
रंक होने से रांका कहवे,
रहवे धन से हीण।
अणपढ़ की भगती भारी॥4॥
संवत 1351 बैशाख,
बुदी की सातम।
बुधवार और कर्क लगन में,
धरे बाकाजी नाम।
काया हरिदेव घर धारी॥5॥
पंढरपुर में जनमें दोनों,
रांका बांका दोई।
युवावस्था में रांकाजी के,
बांका बणी लुगाई।
दोनों भगती में चित धारी ॥6॥
जंगल से लकड़ी लेकर,
दोनों बेचने जाते।
जो भी उनसे मिलता था,
तब भोग लगाकर खाते।
उनकी सहाय करे गिरधारी॥7॥
रांकाजी को दु:खी देखकर,
नामदेव ने सोचा।
प्रभुजी से करी प्रार्थना,
धन देवो हरि दोसा।
फिर हरिजी कहे बिचारी॥8॥
रांका कुछ भी लेगा नाही।
प्रभु ने यह फरमाई।
तुम्हे देखणा हो तो सुबह,
बन में जा छिप जाई।
लकड़ी लाने की करे तैयारी॥9॥
रांका बांका जिस रस्ते पर,
लकड़ी लेने जावे।
मोहरों की एक थैली लेकर,
प्रभुजी पहले आवे।
थैली बीच रास्ता में डारी॥10॥
आगे-आगे चले रांकाजी,
ठोकर थैली से खाई।
मोहरा की जद थैली देखी,
मिट्टी से ढकवाई।
देखो कैसी मन में धारी॥11॥
इतने में बांकाजी बोली,
सुणलो स्वामी मारी।
कोण चीज को ढाक रहे हो,
बात बतादो सारी।
में हूं आपकी नारी॥12॥
थारा मन में लोभ न उपजे,
सुण ले बात हमारी।
मोहरों की थैली के ऊपर,
मिट्टी लाकर डारी।
या भगती बिगाड़े सारी॥13॥
बांकाजी अब ऐसे बोली,
सुणलो नाथ हमारी।
धुला ऊपर धुलो डारो,
या कई मन में धारी।
परधन धूल बिचारी॥14॥
बांकाजी की बात सुण तो,
रांका जी शरमाये।
मेरे से भी बढ़कर निकली,
कुछ कह नहीं पाये।
तुझे धन्य धन्य बलिहारी॥15॥
नामदेव और श्री हरि ने,
छुपकर देखी लीला।
अमृत जिसने चाख लिया,
फिर क्यू खाते गुड़ गीला।
ठोकर तीन लोक के मारी॥16॥
आगे जाकर श्री हरि ने,
लीला एक रचाई।
सूखी लकड़िया सभी तोड़कर,
भारिया दी बंधवाई।
आये रांका बांका नर नारी॥17॥
देख पराई मोळियां ने,
मन को नहीं डुलाया।
सूखी लकड़िया
मिली नहीं तो,
खाली हाथ घर आया।
दोनों भूखा ही रात गुजारी॥18॥
मोहरा देखी आंख्या से,
जिसका यह फल पाया।
घर पर लेकर आ जाते तो,
क्या होता मारी माया।
या तो सहाय करी गिरधारी॥19॥
अन्त समय में दोनों को,
हरि ने दर्शन दीना।
एक ही साथ गये बैकुण्ठ में,
जनम सफल कर लीना।
ऐसी कुदरत की गत न्यारी॥20॥
संवत 1452 की बैशाख,
सुदी पूर्णिमा।
उमर 101 कर,
पहुंचे श्री हरि के धाम।
कहे भैरूलाल बिचारी॥21॥