साधू भाई ले तत्व ज्ञान विचारी।
सांचा सतगरू रमज लखावे,
दे दृष्ठांत अपारी।।टेर।।
जगत जंजाल दृश्य सब झूठा,
भ्रांति रूप विस्तारी।
रज्जू में सर्प मिथ्या जो भावे,
या विधि जगत असारी।।1।।
सीप में रूपा भोडल चमके,
ठूंठ में पुरूष आचारी।
दोष अह्यास संसय कर कर दूरा,
प्रेमय प्रमाण विडारी।।2।।
हाटक में बहु भूषण ठाने,
लोहा शस्त्र तरवारी।
खाण्ड खिलोना देख उपाधि,
कारण कार्य बलिहारी।।3।।
मिश्री मिष्ठान ज्यूं रंग मेहंदी में,
व्यापक एक आधारी।
बुद्धि में भेद उपाधि कल्पित,
मूला तूल बन्धारी।।4।।
कुटस्थ अंश साक्षी चेतन,
पूर्ण ब्रह्म सुखारी।
रामप्रकाश अप्रोक्ष निजानन्द,
अभय अमाप अपारी।।5।।