भगती निर्मला ने पाई
मेटी कुल की काण।।टेर।।
रामभजन का नाम माही,
रहती दिन अरू रात।
सफेद कपड़ा तुलसी माला,
तिलक चन्दन का माथ।
करे रामायण पाठ सदाई॥1॥
टाट बिछाकर सोवे रात में,
राम नाम चित धार।
सादा भोजन करे निर्मला,
दिन में एक ही बार।
रहवे धर्म ध्यान के मांई॥2॥
गोड़
ब्राह्मण थे गुजराती,
विश्वनाथ
था नाम।
काशी
जाकर बस गये,
करे
स्कूल का काम।
यह
उन्हीं की लड़की भाई॥3॥
रोज
शाम को विश्वनाथ जी,
कथा
रामायण बांचे।
करूण
कथा में कदीक रोवे,
कदी
कदी वह नाचे।
सुणबा
आवे लोग लुगाई॥4॥
एक
मात्र बेटी थी निर्मला,
माता
भी भगती वाली।
बालपणा
में लागी भजन में,
राम
करे रखवाली।
होवे
आणन्द सदाई॥5॥
निर्मला
की शादी कीदी,
धूमधाम
से भाई।
हेजे
से मर गया पति,
एक
साल के मांई।
ऐसे
गुलाबराय सांवत मर जाई॥6॥
रो
रो करके विश्वनाथजी,
करे
हरि का ध्यान।
बेटी
को विधवा कर दीनी,
बुरी
करी भगवान।
अर्जी
बार-बार फरमाई॥7॥
सगुण रूप में प्रकट होकर,
दरसण
दीदा आय।
जो
होवे सो अच्छा होवे,
मन
में मत घबराय।
हरिजी
बात सभी समझाई॥8॥
पूर्व
जन्म में ब्राह्मण थे तुम,
यही
थी कन्या तुम्हारी।
जगदीश
नाम तुम्हारा कहिये,
सरस्वती
केय पुकारी।
दोनों
बहुत गुणी थे भाई॥9॥
पड़ोस
में एक क्षत्रिय रहता,
ताके
नार पराई।
सरस्वती
को कुदृष्टि से,
देखा
करता भाई।
बोले मीठी बात बणाई॥10॥
उनके बहकावे में आकर,
सरस्वती ने भाई।
पतिदेव को अपमानित कर,
पिता की साख भराई।
नहीं जावे सासरा मांई॥11॥
पतिदेप ने शाप दिया,
ज्यूं विधवा हो गई भाई।
बेटी का जब पक्ष किया तो,
आफत तुम पर आई।
रहे धर्म ध्यान के मांई॥12॥
अन्तर्ध्यान हुए प्रभुजी,
इतनी कह कर बात।
बेटी कहवे बाप ने,
मारी सहाय करे रघुनाथ।
सोच फिकर मत लाई॥13॥
मात पिता के रहती घर में,
नेम धर्म के मांई।
एक ही दिन में मर गये,
भाया दोनों धणी लुगाई।
रहवे एकलड़ी घर मांई॥14॥
क्रियाकर्म कर माता पिता का,
कुछ दिन ही रह पाई।
काशी नगरी पास मायने,
गंगा तीर पर आई।
तीस बरस भगती कमाई॥15॥
फिर शरीर छोड़कर गंगाजी में,
पहुंची बैकुण्ठ धाम।
झूठ कपट मद लोभ छोड़कर,
लेवो हरि का नाम।
भैरूलाल कहे सुख पाई॥16॥