बार बार समझायो रे जीवड़ा,
जनम गमायो ते इहांई।।टेर।।
स्वामी सिमरूं सुण्डालो,
सारद माता मंमाई।
गर्भ चेतावनी सुख सुं वर्णू,
जीव ब्रह्म री ओलखाई।।1।।
जिवड़ो अर्ज करे हरी आगे,
मेलो मात लोक मांही।
करसूं पुन पाप ने पेलूं,
दया राखसूं देह मांही।।2।।
मात पिता थारे गोत कुटुम्बी,
तू रल जासी उंही मांही।
करड़ा कोल करे दगा में,
भूल जाय लो छिन मांही।।3।।
जल की बूंद पड़ी भीतर में,
बीसूं आंगलियां दीन्हीं सांई।
थम्भ दोय केवल एक बणीयो,
अजब उपायो उण साई।।4।।
हाथ दिया तने पांव दिया है,
नैण दिया निर्खण तांई।
शीश फूल थारे इण्डो चढायो,
पवन पुरुष भेल्यो मांही।।5।।
मृत्यु लोक में जन्म लियो,
अवाज हुई दगा मांही।
तीन नाम भगवत रा लीन्हां,
भूल गयो उन छिन मांही।।6।।
पांचा बरसां हुयो दोजकी,
डोलण लागो घर मांही।
पांच पनरा हुयो पचीसां,
अबे रामजी है कांई।।7।।
डिग मिग नाड़ डोलबा लागी,
पगल्या ठांय टिके नांही।
सब तन थका सिमरण झाली,
अब सिमर्या होवे कांई।।8।।
हुक्म हुयो सायब रे दूतां,
जम आया लेवण तांही।
फिरे दोला बूझण लागा,
ते सुखरत करिया कांही।।9।।
नाम न लीन्हों धर्म न कीन्हों,
दया न राखी देह मांही।
मात पिता ने घणा सताया,
पाप किया निज हाथां ही।।10।।
कण्ठ पकड़ नेे गरडु जूत्या,
दु:ख पाउ हुं देह मांही।
काया नगर में रोलो मचियो,
मार पड़े है गुर्जाई।।11।।
धर्मराज जी री पोळिया,
लेखो मांगे वो सांई।
साच बोल सायब री दर्गा,
तें सुकृत कीन्हों कांही।।12।।
नाम न लीन्हों धर्म न कीन्हों,
दया न राखी देह मांही।
साध सन्ताे री करी ठचेरी,
कलक लगायो हाथां री।।13।।
कीड़ा खावे मुग्दर भारे,
हाथ भरावे थाम्माई।
दु:ख पांउ दोजक में पडियो,
जाबा न दे भगवत तांई।।14।।
हाथ जोड़ने करूं वीनती,
मात लोक मेलो सांई।
कर सूं पुन पाप ने बेलूं,
स्वांस स्वांस सिमरूं सांई।।15।।
भुगति जूण चोरासी जीवड़ा,
सात लोक मेलू नाही।
करस्यो सीला डूंगर उपर,
घास न उगे थां मांही।।16।।
अनन्त सन्ता रे शरणेे आयो,
गुरां पीरां सूं गम पाई।
गुरु खिंवजी ''लिखमो'' जस गावे,
हरि सिमर्या निर्मै थांही।।17।।