अरूप औलखो निज सार,
सन्ता घट उबरघा नेण विचार ।।टेेेेर।।।
रूप न रेखा रंग नही बांके,
नहीं कुछ अंंग आकार।
धरियो नही अधर है आतम,
सब घट में इकसार।।१।।
अण घड़ देव दृष्टि नहीं आवे,
ऐसो अगम अपार।
हरदम रहे हजूरी सूं,
हाजर दूरो नही लिगार।।२।।
कौन बताया कहो कैसे पाया,
कैसा है करतार।
सतगुरू सेन शब्दों में,
दीन्ही निरख्यो निज निराकार।।३।।
गगन मण्डल में प्रीतम परस्या,
सुरत शब्द के मंझार।
रोम रोम के बिच रमता दोटा,
नहीं हल का नहीं भार।।४।।
मिट गई चिंता चाह्या जैसो पाया,
भाग्या भरम अंधार।
''लिखमा'' पिव पायो परच्या सूं,
देहि बिच दीदार।।५।।