म्हारा सिर पे गरूजी रो
हाथ,
जमराजा म्हारो कई करसी
।।टेर।।
पंचभूत पच्चीस तत्व को,
मुझ में नहीं है लेश ।
सर्वव्यापी भूमा हूं मैं,
नहीं है अविद्या को लेश
।।1।।
तीन ताप और पंच क्लेश का,
मुझ में नहीं है लिगार ।
तीन देह अवस्था त्रिय,
दीनी है अविद्या ने जार
।।2।।
खट उर्मी अरू षष्ट अध्यास,
भ्रांति रूप संसार ।
मैं इनमें अन्वय कहाऊं,
सदा साक्षी निर्विकार
।।3।।
साकार निराकार मैं ही कहाऊं,
मैं ही अवधि अपार ।
घट घट माही मैं ही
प्रकाशुं,
मैं ही सबका हूं आधार
।।4।।
नाथ विवेक मिल्या गुरू
पूरा,
काल का किया संहार ।
शंकर नाथ आवे नहीं जावे,
सदा रहे एक सार ।।5।।