सन्तो सत् शब्द सुखधारा,
लग गई डोर मिटया डर अन्त का
निर्खत नाम निझारा।।टेर।।
मिल सतगुरू धुन ध्यान धरया,
मिट गया भरम अंधारा।
धोखा धेख मिटी सब दुनिया,
हो गया ज्ञान उजारा।।१।।
भजन बिना नर भूूूूूल्याे अन्धा,
मोह माया में मंझारा।
सुखरत सिमरण बिना बहे वैसे ज्यो,
क्या लेवे गौलारा।।२।।
रहता राम रहे सब व्यापक,
ज्यांका सकल पसारा।
बाहर भीतर चढ़ चेतन बिच,
रूप रेख नहीं न्यारा।।३।।
शक्ति स्वरूप अरूप अलख हैै,
काया बिच करतारा।
रोम रोम बिच रमता दीठा,
है कर्मा सूं न्यारा।।४।।
निर्भय होय निरन्तर निरखो,
निरख्या होय निस्तारा।
''लिखमा'' अलख लखी लिव लाया,
अब उधरण का वारा।।५।।