मन रे ऐसा सतगरू हेरी।
ज्ञान बेराग योग अरू भक्ति,
शीलवान गम गेरी।।टेर।।
पर उपकार विचरे जग माही,
स्वारथ
रखे न नेरी।
बिन मतलब उपदेश सुणावत,
इन्दर ज्यूं बरसेरी।।1।।
निन्दा स्तुति इण से न्यारा,
हर्ष शोक नहीं लेरी।
समदृष्टि सारा पे जोवे,
कहां मित्र कहां बेरी।।2।।
देह अभिमान तज दिया दूरा,
बड़पण परी बिसेरी।
निरहंकार दयालू ऐसा,
गुरू ज्ञान भीजेरी।।3।।
पारस बण कंचन कर देवे,
भंवर कीट पलटेरी।
रामधन हंस गुरू हे बिरला,
बन्धन दूर करेरी।।4।।