असल निज सार की भाई साधू,
सतगरू सेण बताय।।टेर।।
सुरता समज्या विचार,
सुरत घर हेर लीना।
पांच पचीसा ने मार,
अगम का मारग लीना।
जाय पूंगा उण देश में,
निरभे गुरे निशाण।
सात दीप नव खण्ड में रे,
नहीं शशिया नहीं भाण।।1।।
घटा चढ़ी घणघोर,
चूवे कोई अमृत धारा।
पीवे संत सुजान,
हरि का हरजन प्यारा।
जनम मरण यहां है नहीं,
आवागमन मिट जाय।
अटल धाम पे बैठ के जी,
संत अमर हो जाय।।2।।
कैसे कहूं मैं,
बणाया देश सतगुरू ऐसा।
नहीं शशिया नहीं भाण,
भाण बना हुवा उजाला।
अष्ट पोहर आनन्द रहे,
अदर दलीचा माय।
महर हुई गरूदेव की रे,
बहुत ही रचना बताय।।3।।
सतगुरू दास कुशाल,
नवल गुरू ब्रह्म समाना।
बैठ अगम की डाल,
मुगत का देने वाला।
चरण कमल की राय में,
बोले ब्रह्म लगार।
बहु दल पहरा टाल के रे,
अगम निगम किया पार।।4।।