साधू भाई गरू मिल्या गम पाई।
जनम धर्यो चोरासी माही,
सतगरू आय चेताई।।टेर।।
सूतो मोह अज्ञान नीन्द में,
सतगुरू सबद सुणाई।
बहुत जुगन की भूल भगादी,
पूरब भोम लखाई।।1।।
जैसे सिंह सारी सुध भूल्यो,
भेंड मान भड़काई।
मिल्यो पहाड़ी शब्द सोहं दे,
निज स्वरूप लखाई।।2।।
जैसे नार सुपन में बिसरी,
पुत्र खोय कुरलाई।
उड़ गई नीन्द गोद में पाया,
आनन्द हिय रे माही।।3।।
पूसाराम गुरू सतचित आनन्द,
कमी न राखी कांई।
रामधन हंस और नहीं दूजा,
समदर लहर समाई।।4।।