ऋषि अगस्त जी की लीला,
सुणज्यो ध्यान लगार ॥टेर॥
मणिमती नगरी में रहते,
राक्षस भारी दोय।
इल्वल और वातापि कहिये,
ऐसा और न कोय।
कर देवे मुश्किल जीना॥1॥
एक दिन ब्राह्मण से बोले,
ऐसा बेटा देवो।
इन्दर को भी जीत सके,
ब्राह्मण जल्दी केवो।
ब्राह्मण ने नहीं दीना॥2॥
तब से दोनों करने लगे,
ब्राह्मणों की हत्या।
जमलोक से वापस लावे,
कर दी जिनकी हत्या।
वरदान ऐसा ही लीना॥3॥
एक भाई को बणा कर बकरा,
मार काट कर लेय।
ब्राह्मणों को खिलाकर के,
वापस बुलवा लेय।
बकरा पेट फाड़ आ जावे॥4॥
पितर लोक में गये अगस्त जी,
पितर लटक रहे उल्टे।
कैसे हो उद्धार आपका,
कैसे होवो सुल्टे।
सब ही बात बताओ माने॥5॥
बिना पुत्र के वंश रूके,
जब यही दशा हो जावे।
शादी कर सन्तान देवो,
माको नरक कट जावे।
ऐसे पितरों ने फरमाई॥6॥
लगे खोजने पत्नी को,
कोई पसन्द नहीं आई।
उत्तम गुण सभी से लेकर,
सुन्दर बच्ची बणाई।
राजा विदर्भ राज को दीनी॥7॥
राजा के सन्तान नहीं थी,
आ गई लड़की घर में।
लोपामुद्रा नाम रखा है,
बड़ी होवे पीहर में।
ऐसे समय बीता खुशी से॥8॥
जवान हो गई लोपामुद्रा,
अगस्त जी जा पहुंचे।
राजा राणी पड़े चरण में,
आसन दीन्हे ऊंचे।
महात्मा कहवे बात बिचारी॥9॥
कन्या मुझ को दे दो राजा,
वंश बढ़ाना चाहूं।
पितरों का तब मोक्ष होवे,
शुभ गति में लाऊ।
मन में राजाजी घबराये॥10॥
होश उड़ गये राजा के,
हां ना कुछ ना बोले।
संत बड़े है शक्तिशाली,
बात को कैसे टाले।
तब कन्या क्या बतलावे॥11॥
मेरे खातर दु:ख मत पावो,
लोपामुद्रा कहवे।
अगस्त जी के कर दो लारे,
लाज आपकी रहवे।
तब लड़की सन्त को सोंपी॥12॥
हार श्रृंगार सभी खुलवाकर,
तपसी रूप कर लीना।
हरिद्वार में पहूंचे दाेनों,
भजन हरि का कीना।
सेवा करे पति की सारी॥13॥
ऋतुकाल से निवृत होते,
अगस्त मुनि ने देखा।
पुत्र पैदा करने का तब ही,
मुनि ने दिया सन्देशा।
पत्नी शरमाती यूं बोली॥14॥
पिता के घर ठाट बाट था,
ऐसा ही बणवावो।
भंगवा को लज्या मत मारो,
राज श्रृंगार करावो।
तब मेरे पास में आओ॥15॥
मेरे पास में धन नहीं है,
कैसे ठाट बणाऊ।
तप बल से सब ही मिल जावे,
चमत्कार दिखलाओ।
मेरी तपस्या खुट जावे॥16॥
धणी राजा जाण कर,
गये सुतर्वा पास।
कष्ट न होवे और को,
धन से पूरो आस।
राजा ने आय व्यय दिखलाया॥17॥
आमद खर्चा देख बराबर,
मुनि रह गये मौन।
उसने दीना हिसाब बताई॥18॥
तीनों मिलकर हुए रवाना,
त्रसदस्यु के पास।
आमद में से कुछ धन दे दो,
लेकर आये आस।
उसने भी लेखा दिया बताई॥19॥
चारों सोच करे मन माही,
कहां से लावे धन।
इल्वल दानव है धनवन्ता,
देंखे उसका मन।
चारों गये इल्वल के द्वारे॥20॥
इल्वल ने सत्कार किया,
और भोजन भी बणवाया।
वातापि का मांस रांधकर,
ले पुरकारी आया।
राजा दु:खी हुए मन मांही॥21॥
मुनि अगस्त ने कहा राजा से,
मन में मत घबरावो।
अकेला खा जाऊ दानव को,
फेर देख नहीं पावो।
चट कर गये भोजन सारा॥22॥
इल्वल ने अब वातापि को,
आवाज देकर बुलाया।
अपानवायु निकली मुनि के,
कोई बाहर नहीं आया।
वातापि पच गया पेट के मांही॥23॥
इल्वल ने भारी दु:ख माना,
भाई मरण का भाई।
किस कारण से आये साधू,
देवो बात बताई।
तब धन की बात बताई॥24॥
कितना धन में दूंगा तुमको,
मन की बात बतावो।
दस हजार गाये और,
मोहरे देकर पुण्य कमावो।
तीनों राजा को यह दोगे॥25॥
इनसे दूणी मुझको दोगे,
स्वर्ण रथ जुते घोड़ा।
जिन्दगी में मेंने इल्वल,
झूठ बोलना छोड़ा।
सब ही सांची बात बणाई॥26॥
एक बात हम माने नाही,
रथ सोने का नाही।
जांच किया तो रथ सोने का,
मुनि बात सच पाई।
धन लेकर हुए रवाना॥27॥
पीछे पीछे भागा दानव,
लेऊ मुनि को मार।
हुंकार कीदी महात्मा,
तब पहुंचा जम के द्वार।
इल्वल तुरन्त भस्म हो
जावे॥28॥
आश्रम पर आ महात्मा ने,
सभी ठाट बणवाये।
लोपामुद्रा की पूरी कामना,
पितरों का नरक मिटावे।
तब दृढस्यू पुत्र कहावे॥29॥
सात साल तक रहा पेट में,
मात पिता मन भाया।
पितर ऋण से उऋण कीना,
वंश बढ़ाने आया।
ऐसे भैरूलाल कह गावे॥30॥