ज्ञान बास रूप्या घट भीतर,
प्रेम डोर छटकी भाई साधां प्रेम।
सूरता खिलाडू चढ़ी भरत पर,
उल्टी कला देखो नट की ।।1।।
लगन हर का नाम से लपटी,
नाम से लपटी रे गुरां का भाव से लपटी।
लगन हर का नाम से लपटी।।टेर।।
घायल होकर फरे घूमता,
कुण जाणे वा मन की।
सतगरू सेण समझ कर दी दी,
जाय कालजा मे खटकी ।।2।।
भरम करम की सिर पर मटकी,
वां मटकी ने परी पटकी।
सतगरू सेण समझ कर दी दी,
त्राप मटगी वां रा तन की ।।3।।
थे बांचों भाया वेद पुराणा,
भरम भेद छपगी।
आवण जावण का सांसा मेट्या,
रोळ मटी जमकी ।।4।।
थे चालो भाया रहत आगली,
खलक बेहवे उल्टी।
प्रेम पपैयो पीवण लागो,
मरोड़ मटगी वां रा मन की ।।5।।
गगन मण्डल में रोशन तकिया,
अदर सहज उनकी।
सूरता केवे मारी वां ही लूम्ब जाऊ,
बूंद पड़े प्रेम रस ।।6।।
रामानन्द सतगरू जी मिलिया,
संगत भली सन्तन की।
कहे ''कबीर'' सुणो भाई साधू,
टेक राखी गणी अबकी ।।7।।
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