अथ श्री अजामिल चरित्र
।। दोहा ।।
श्री भूखन पद कमल रज,
सेवहुं निज मन लाय।
ज्यां सेव्या भव डर मिटे,
त्रिविध ताप मिट जाय।।1।।
जागत सोवत रात दिन,
राखो हरि चित धार।
जन्म मरण भव दु:ख मिटे,
नाम सूं उतरे पार।।2।।
।। चौपाई ।।
सब रात नाम भजो रे भाई।
ज्यां सिमर्या हो सुख अधिकाई।।1।।
सब सुख होय जो सिमरे रामा।
हरिदयाल पूरे सब कामा।।2।।
हरि को नाम वेद अति गयो।
नाम महात्तम गुरु बतायो।।3।।
भागवत में वर्णित है वो ही।
कथा पुरातन सुनिये सोही।।4।।
अज्यामेल ब्राह्मण का बेटा।
पशु समान भरत जहां पेटा।।5।।
वेश्या संग में रहयो भूलायो।
ऐसे ही सब जन्म गमायो।।6।।
मारत पशु उदर के कारण।
नाम अजामल तांते धारण।।7।।
भयो काम बस कुबुध घणेरो।
ऐसे रहत सदा बस चेरो।।8।।
अमिष अहार करे दिन रैना।
ऐसे रहत नमक नहीं भैना।।9।।
मुख सूं बोले कड़वी वाणी।
करत कुकर्म न जाय बखाणी ।।10।।
ऐसो महा कुबुधि अति पापी।
मिथ्याचारी सदा शरापी।।11।।
देश कनौज पूरब को वासी।
ऐसे भयो वर्ष अठ्यासी।।12।।
नाम महातम ऐसी कीन्हीं।
अन्त काल वांकू गति दीन्ही।।13।।
नाम प्रताप सम नहीं कोई।
नाम लिया कृृतार्थ होई।।14।।
कहे परीक्षत सुणिये राजा।
तुमसे सरे हमारे काजा।।15।।
पाप करत दिन रातजी नाई।
तांकी मति कहो कैसे भाई।।16।।
तब बोले सुखदेव गुसांई।
राजा को सन्देह मिटाई।।17।।
नाम महातम कहिये ऐसो।
वर्णित है मुनिराज ज्यूं वैसो।।18।।
कोट काष्ट अधि किये धने रे।
तांमे अग्नि निमक ही गेरे।।19।।
होय भस्म ऐरे छिन मांही।
नाम लेत यू पाप नसाई।।20।।
कोट काष्ट अधि नाम नसावे।
सो मुनिराज कथा सब गावे।।21।।
पापी जन्म कियो मन भायो।
काल बाल ग्रासण जब आयो।।22।।
धर्मराय कागद कर लीन्हों।
एक पल सुकृत नाही चीन्हीें।।23।।
लेवन को जमदूत पठायो।
अज्यामेल पे तब ही आयो।।24।।
उर्ध केस तन ही विक्राला।
नैनन मासूं निकसत अति ज्वाला।।25।।
बाकी डाडि देह ते वाडा।
सो जमराय फिरत है आडा।।26।।
फांसी डाली मुकदर मार्यो।
पुत्र नारायण नाम उचार्यो।।27।।
हरि के अनुचर तब ही आये।
जम के दूत को मार भगाय।।28।।
ले विवाण तां फिर बैठायो।
तुरत उसे बैैैकुण्ठ पठायो।।29।।
धर्मराय पेेगई पुकारां,
मुगदर फांसी सन्मुख डारा।
देखो पीठ हमारी जोई,
ऐसा हाला कबहुं ना होई।।30।।
सुण के वचन कहत जमराई,
उनको रूप देवो बताई।
जब बालक वह आज्ञाकारी,
चित देसुनियो कथा हमारी।।31।।
अंग सुन्दर रूप मुकद सिर दीयो,
श्रीछाप अरू तिलक जो कियो।।
और बिराजे तुलसी की माला।
शंख चक्र गदा पद्म विशाला।।32।।
गदा पद्म अंग ही विराजे,
पीताम्बर तन उपर छाजे।
आवत ही यो वचन सुणायो,
राम राम हरि भक्त सतायो।।33।।
लियो छूड़ाय मोहि फिर मार्यो,
सो तुम पे हमे आय पुकारयो।
तुमरी आज्ञा मानत नाहिं,
अब कहूं क्यों मार हम खांही।।34।।
वह हरि के अनुचर थे भाई,
बांको देख तुम क्यों ना आई।
ऐसो काम बहुवन न कीजे,
हमको फिर कछू दोष न दीजे।।35।।
जहां हरि वहां तुम मत जावो,
ओर ठोर निज करो उपायो।
हरि भक्तों को कछू न सुहावे,
पूछत भूप जवाब न आवे।।36।।
जहां हरि वहां तुम भल नाहीं,
भली न तुम राखो मन मांही।
नारायण को नाम जा लियो,
तुम जा उहां दु:ख क्यूं दीयो।।37।।
मोहि कहां हरि आज कहेगा,
तुमरे लिये हम सबही सहेगा।
जमराय यह कथा सुणाई,
दूतन मन सन्देह गुुुसाइई।।38।।
जम के दूत तब ऐसे बोले,
अब तुम हमसे परदा खोले।
नमस्कार देखत हम करसी,
काम हमारा तब ही सरसी।।39।।
यह इतिहास कहा मुनिराई,
बांके मन तब भई सच्चाई।
अज्यमेल चरित यू गायो,
राजा मन संदेह मिटायो।।40।।
राम कहत गनिका सी तारी,
तांते राम जपो नर नारी।
माध मास पूरण अस्नाना,
विविध विधि कर दीजे दाना।।41।।
काशी में जा मरिये कोई,
तो भी नाम समान न होई।
कर सुमेर कंचन को दीजे,
ऐसे रह कछू खाय न पीजे।।42।।
जोध समाध करे जो ध्याना,
तो भी नहीं है नाम समाना।
सब वसुधा की परिक्रमा करिये,
मून गहे जड़ भरथ होर हिये।।43।।
कोटि यज्ञ बहु विधियो करीजे,
तो हरि नाम समान न भरिये।
राम नाम दृढ़ करजो लीन्हों,
देखो तांही अमर पद दीन्दों।।44।।
अम्बरीष की ताप निबारी,
चक्र सुदर्शन कर रखवारी।
पांडव सम नाम चित धारयो,
भांत भांत को कष्ट निवार्यो।।45।।
और बात समझो मत कोई,
नाम लेत परायण होई।
जप तप व्रत नाम विशेखे,
लेत नाम हरि तुरत हि लेखे।।46।।
राम नाम भज मंगलकारी,
सो राखो जनलो उर धारी।
मुख सूं हरि को नाम ही लीजे,
हर्षित हाे हरि पूजा कहजे।।47।।
हरकूं जो जन शीश निवावे,
जूनी संकट फेर न आवे।
नाम लेय सब सर ही काजा,
अलख रूप का होत निवाजा।।48।।
हरि को नाम लेय बड़ भागी,
हरि को पाय जगत काे त्यागी।
हरि नाम से सब सिद्धि आये,
नाम लेत निद्धि पावे।।49।।
नाम रूप जांके मन भावे,
ताके हरि हर पाप नसावे।
नाप लेत जम दूरा जाई,
हरि के धाम परम पद पाई।।50।।
सतजुग सत त्रेता तप करते,
द्वापर में पूजा चित धरते।
''लिखमो माली'' कहे विचारो,
कलजुग में हरिनाम अधारी।।51।।
नारद हि दुर्लभ कर पाईये,
हरख हरख हरि गुण गाईये।
तांहि ते राम राम कहिजे,
अपणा जन्म सफल कर लीजे।।52।।
जो ये कथा सणे और गावे,
नारायण के अति मन भावे।
मन वांछित फल पावे सोही,
अन्त काल तांकी गति होई।।53।।
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