छांडि मन हरि विमुखन को संग,
जांके संग कुबुद्धि उपजत हैै,
परत भजन में भंग ।।टेर।।
कहा होत पय पान कराये,
विष नहीं तजत भुजंग।
कागा ही कहां कपूर चुगाये,
स्वान नहाये गंग ।।1।।
खर को कहां अरगजा लेपन,
मरकट भूषण अंग ।
गज को कहां नहाये सरिता,
बहुरी धरे खहि छंग ।।2।।
पाहन पतित बान नहींं बेधत,
रीतो करत निषंक।
सूरदास खल काली कामरी,
चढ़त न दूजो रंग ।।3।।
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