साधू भाई षोडष कला लखाई।
गरू कृपा ईश्वर की आदू,
वेद पुरूषार्थ आई।।टेर।।
आदि अमावस आशा थाकी,
वृति बेराग सजाई।
ब्रह्म लोका दि भोग विसारे,
फक्र फकीरी पाई।।1।।
एकम एक लगी लय पूरण,
गुरू सबद गहराई।
शुभ कर्मानु शोधन शोभा,
एक ब्रह्म लो छाई।।2।।
बीज दरस्या शुद्ध बीज मंत्र को,
होय अंकुर फलाई।
भाव उपासना कला बढ़त ही,
फल की आश मिटाई।।3।।
तीज तत्व का दर्शण पाया,
त्रिगुण तार पिटाई।
गुणातीत चेतन चित लागा,
माया तीन विलाई।।4।।
चौथी लखी चित चार भूमिका,
चेतन चित लगाई।
चिन्तन चीर चर्म पथ खोया,
अपना आप ढुंढाई।।5।।
पांचम भेद पांच तज सारा,
पंचीकृत परचाई।
परचा पाय महरम को जाण्या,
प्रपंच खोज खपाई।।6।।
छट्ट को छोह मोह भय भागा,
छ: दर्शण मत काई।
छीलर छेह गेह तज भाया,
छट्टे घर लिव लाई।।7।।
सातम सात लख्या शुद्ध चेतन,
साधन सर्व सजाई।
शर्म धर्म का संसय काट्या,
सत्य कला सुखदाई।।8।।
आठम आठ बंध कस नाड़ी,
आसन योग सधाई।
इला पिंगला सुखमण नाड़ी,
प्राण गति गम ताई।।9।।
नवमी नौ द्वारे को रोक्या,
विषय कर्म शम थाई।
नहीं नहीं का बज्या नगारा,
इन्द्रिय प्राण थकाई।।10।।
दसमी दोष दशो तज दूरा,
दशवें देव दरसाई।
दर्शण पाया दर्द दु:ख खोया,
मस्त भया मन माई।।11।।
ग्यारस ग्यारहवा ओर न भासे,
मन चित एक मिलाई।
द्वेत गया दर आप पिछाण्या,
अपना आप अजाई।।12।।
बारस बाहिर भीतर चेतन,
पूरण धन परसाई।
बारह बाट माया के आगे,
बेगम पुरी बसाई।।13।।
तेरस तार तत्व मय तणके,
तत्व स्वरूप बताई।
तेरा मेरा खोज विलाया,
व्यापक आप अमाई।।14।।
चोदस चोदह लोको के ऊपर,
अपना आसण लाई।
चौदह त्रिपुटी मुझ में नाही,
मैं साक्षी गुण राई।।15।।
पूनम पूरा रह्या सब घट में,
अनन्य अचल गोसाई।
सोलह कला सदा थिर उज्ज्वल,
घटण बढ़ण कछू नाई।।16।।
सर्व दिशा परिपूरण चेतन,
सारी कला समाई।
रामप्रकाश परमानन्द निजहूं,
निज का निज अनुभाई।।17।।
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