आज ही करले जो करना है कल का,
कल कल क्या करता नहीं भरोसा पल का ।।टेर।।
रावण सोचा सिड्या स्वर्ग पहुंचाऊ,
अग्नि की जाल मूं धुआं ने बन्द कराऊ।
फिर कंचन सोना माय सुगन्ध मिलाऊ,
लंका नगरी में ला बैकुण्ठ बसाऊ।
करू करू में छोड़ गया वो खल का।।1।।
जग झूठा है जंजाल, सपन ज्यूं माया,
या है कांटा की झाड़, जाण उलझाया।
धन जोबन मेहमान, बादल ज्यूं छाया,
झट जाग मुसाफिर, पंथ भूल भटकाया।
अब आथण में भाण,रहिया कुछ चलका।।2।।
पाणी का बरबड़ा ज्याण फटक फूट जाये,
बणजारा थारी बाळद कद लुट जाये।
या चलती गाड़ी कदपंचर हो जाये,
ये गया स्वांस भीतर आये न आये।
गणती रा रेग्या स्वांस,मैल धो दिन का।।3।।
पाणी का रेला ज्याण जीवण यो जावे,
क्या सोया सुखभर नींद, बींद सर छाये।
यो मनखा तन मेहमान फेर नहीं आये,
माटी की पुतली माटी में मिल जाये।
मत भूले भैरया मौत पाप कुछ मल्का।।4।।
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