दोहा:-
रात को भजे जो चोरड़ा और दिन को भजे जो ढोर।
गुफा
में भजे जो उन्दरा तो सिमरण की गत और।।
साधू
भाई सिमरण की गत न्यारी,
करते
है सिमरण सन्त सन्यासी,
वांको
है बलिहारी।।टेर।।
श्वास
श्वास में सोहं बोले,
घट
अन्दर धुन धारी।
मन
सुरता लागी रहे उनमें,
आठ
पहर इकसारी।।1।।
आसण
अधर रहत अणी ऊपर,
नंगे
करत निहारी।
इला
पिंगला सहजे पलटी,
सुखमण
खुली किवाड़ी।।2।।
कुदरत
खेल अजब रंग देखा,
झिलमिल
जोत जगारी।
अनहद
बाजा बाजे गगन घर,
तन
की सुध बिसारी।।3।।
अमरत
जरणा जरत सदा ही,
सतगरू
के दरबारी।
मंगल
मूरत दरश दिखाया,
गणपत
नत बलिहारी।।4।।
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