हां रे सतसंग आछी रे,
मारा संत सभी बैकुण्ठ का वासी रे।।टेर।।
सतसंगत में चालो मारा भाया,
करम सभी कट जासी।
ज्ञान ध्यान भगती ईश्वर की,
घट में आसी रे।।1।।
लख चौरासी का बन्धन छूटे,
हंस परम पद पासी रे।
जनम मरण में फिर नहीं आवे,
मटे उदासी रे।।2।।
वहां पूंगा फिर काल न खावे,
जिन घर है अविनाशी रे।
सत चित आनन्द ब्रह्मस्वरूप में,
जाय समासी रे।।3।।
अलखानन्द गरू करपा कीदी,
संत चरणा सुख रासी रे।
दास गुमान संता के चरणा,
रहत हुलासी रे।।4।।
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