मेरे साधु भाई सिमरण की गत न्यारी,
करते है सिमरण संत सन्यासी,
वाको है बलिहारी ।।टेर।।
स्वांस स्वांस में सोहं बोले,
घट अन्दर धुन धारी।
मन सुरता लागी रहे उनमें,
आठ पोहर इकसारी ।।1।।
आसण अधर रहत अणी ऊपर,
नगे करत निहारी।
इला पिंगला सहजे पलटी,
सुखमण खुुुली किवाड़ी ।।2।।
कुदरत खेल अजब रंग देख्या,
झिलमिल जोत जगारी।
अनहद बाजा बाजे गगन घर,
तन की सुध बिसारी ।।3।।
अमृत झरणा झरत सदाई,
सतगरु के दरवारी।
मंगल सूरत दरश दिखाया,
गणपत नत बलिहारी ।।4।।
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