विरथा जनम लियो भोमि पे,
जनम लेर पछतायो।
मना रे भाई कई रे लेबा ने आयो ।।टेर।।
मनकां जनम दियो ईश्वर ने,
परालब्ध से पायो।
थारी मारी करता करता,
कदी न हरि गुण गायो ।।1।।
तन की तृष्णा में फसग्यो रे,
भोन्दू दोड़ दोड़ नी थायो।
तन की तृष्णा नही मटी,
थारी न कोई गंगा में न्हायो ।।2।।
दान पुन्न थे कदीय न कीदो,
न कोई साध जिमायो।
सत् की संगत में कदीय न बैठो,
सूखे सरोवर न्हायो ।।3।।
भव सागर से तरणो वेे तो,
अबके औसर आयो।
कहत ''कबीर'' सुणो भाई साधू,
सतगुरु बहुत समझायो ।।4।।
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