सन्ता मन की कीजे कांई,
सूनो फिरे सबर नहीं आवे,
ठौड़ न बैठे ठांई।।टेर।।
कभी मन होय रहे ब्रह्म ज्ञानी,
कभी भर्मना मांही।
कभी मन होय रहे ब्रह्म भ
कर्मकीच के मांही।।1।।
कभी मन ज्ञान ध्यान धर धीरज,
हरदम गम के मांही।
कभी मन होय रहे हरियाली,
हिरणियांं ज्यो डोले बन दमांही।।2।।
कभी मन त्याग बैराज्ञ विचारे,
क्या जीना जग मांही।
कभी मन आफदा करे अधीकी,
धन सूं धापे नहीं।।3।।
कभी मन होय रहे मरजीवो,
भक्ति कमावत तांही।
कभी मन मान महल में बैैैैठे।
हूं हद घोड़े नाही।।4।।
कभी मन शील संतोष जोग में,
सांयत करे घट मांही।
कभी मन रूप रीझ रहे राजो,
चल्यो बैल के तांही।।5।।
मन से ही भक्ति मुक्ति मन ही से,
मन बंधियो माया मांहि।
कह ''लिखमो'' मन को सब सारा,
करणी सो बन तांही।।6।।
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