ऐसा एक शब्द स्वरूपी स्वामी,
पुण्य न पाप आप गुुरू ऐसा निराकार निजनामी।।टेर।।
जप करजो ह्यो जिण सृष्टि जोयो,
सतगुरू निवण सलामी।
दयानाथ का देख तमाशा,
घट घट लियो मुकामी।।१।।
इला अम्बर बिच बाग लगायाेे,
ऐसो अलख आगामी।
भाजण घड़ण आप घण नामी,
नहीं ले सिर बदनामी।।२।।
हरख न सोक बिजोक न भोगी,
नहीं क्रोधी नहीं कामी।
कुदरत देख किया कमठाणा,
जग में जोत समामी।।३।।
अन्दर अला सला सब जाजे,
तज पर निन्दा निकामी।
हक हुजूर दूर नहीं दाता,
देवे दृष्टि तोहे स्वामी।।४।।
दुनियादारी में मन धारी,
सिर पर श्याम कलामी।
साह निहार तार कहे लिखमो,
बख्य गुना मैं खामी।।५।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें