अब तूू कर सिमरण मन मेरा,
माह में माच रयो मन मूर्ख हरि का भजन भलेरा।।टेर।।
मोहे जाल काचा सब कूड़ा,
दे दिल भीतर फेरा।
सांचा सिमरण धर हृदय बिच,
टल जाये जमरा घेरा।।१।।
कुटम्ब सब स्वार्थ का सीरी,
करस्यो हेत घणेरा।
आखर अन्त एकलो जासी,
बतला कुण संगी है तेेेेरा।।२।।
हुं में हार्यो हर नाम बिसरियो,
हो रहयो हुक्म बडेरा।
कर्मो झड़ कर्ता नहीं जाण्यो,
होसी नरक बसेरा।।३।।
माया जोड़ हुयो मन मेयत,
मन जाणे धन मेरा।
खरच्यां बिना जावसी खाली,
धरया रहे सब डेरा।।४।।
आलस मत कर आयो अवसर,
हर भज होत अवेरा।
होसी जीव कूं सुख जगदीश जाणिया,
ए तो गौड बसेरा।।५।।
भजन करत आगे सन्त उधरिया,
अनन्त सन्त बहु तेरा।
लिखमा ले सिमरण संग सागा,
होसी सुख सागर में डेरा।।६।।
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