हुए गंगाधर संत भारी,
जांके कृष्ण नाम आधार॥टेर॥
उत्कल देश क्षेत्र
पुरूषोतम,
जगदीश धाम बतावे।
प्रतापरूद्र का राज मायने,
गोविन्दपुर गांव कहावे।
उठे संत रहे एक भारी॥1॥
गंगाधर की औरत श्रियाजी,
सती साधवी भाई।
दोनों के सन्तान नहीं थी,
महाजन जात बताई।
छोटा पसरा का बोपारी॥2॥
टाबर टूबर है नहीं,
तो भी चैन से रहवे।
रांड रण्डापो काटण चावे,
रण्डवा काटण नहीं देवे।
सब मौसा देवे भारी॥3॥
संत सेवा करते-करते,
आयो बुढ़ापो लारे।
दुनिया सारी कहवे बाजड़ा,
रहवा कुण के सारे।
किसी को गोद लेने की धारी॥4॥
दास गंगाधर कहे औरत से,
आज ही लड़का लाऊ।
सब ही दुनिया रहवे देखती,
पुत्रवान कहलाऊ।
ये मन में निश्चय धारी॥5॥
रूपया लेकर गया बजारा,
लड़को लेबा तांई।
कृष्णचंद्र की बाल मूरती,
मन में बहुत ही भायी।
ले आये घर गिरधारी॥6॥
कृष्णचंद्र को पुत्र मानकर,
सेवा करते दोनों।
स्नान भोजन लाड प्यार कर,
रोवे राखे छाने।
दोनों ही मूरत मन में धारी॥7॥
कुछ दिन तो ऐसे ही बीते,
कृष्ण सेवा में रहवे।
धंधा करने जाऊं शहर में,
गंगाधर यूं कहवे।
पुत्र की सेवा करना नारी॥9॥
गोरमा में आये गंगाधर,
ठोकर लग पड़ जावे।
पड़ते ही जट प्राण निकल गये,
खबर श्रियाजी पावे।
जब बेटा से अर्ज गुजारी॥10॥
श्रियाजी की सुण के बिणती,
बाल गोपाल फरमावे।
जाकर कह दो कान्हा बुलावे,
जल्दी यहां आ जावे।
क्यूं सो गये नीन्द अघोरी॥11॥
श्रियाजी जब जाकर देखे,
दशा देख नहीं पावे।
मरे पति को कहने लागी,
तुमको श्याम घरे बुलावे।
मत ना लगावो देरी॥12॥
पुत्र एकेला छोड़ के आई,
कोई न उसके पास।
जल्दी चालो सायबा जी,
रो-रो करसी नाश।
ऐसी मून कई धारी॥13॥
मरे गंगाधर दास ने,
सुना कृष्ण का नाम।
जिन्दा होकर बोल उठे,
कृपा करो घनश्याम।
मारी दशा सुधारी॥14॥
घर आकर गोपाल का,
करने लागे प्यार।
रोजी रोटी के लिए,
जाकर आया बाहर।
मने याद गणी आई थारी॥15॥
प्रकट हाेकर बोले प्रभुजी,
सुण लो दादा बात।
बाहर कमाने अब मत जाना,
मैं हूं आपके साथ।
घर में अनधन हो गया भारी॥16॥
लक्ष्मी के आते ही प्रभु
ने,
एक कला कर डाली।
अन्तर्ध्यान हुए सांवरा,
हुआ सिंहासन खाली।
दोनों ने रो-रो रात गुजारी॥17॥
कर-कर याद पुत्र की संत ने,
प्राण त्याग कर दीना।
श्रियाजी ने अनधन का,
सभी दान कर दीना।
अब सती होना बिचारी॥18॥
पति के संग मे सति हो गई,
दिव्य रूप को धारी।
बैकुण्ठ लोक सिधारे दोनों,
देखे नर और नारी।
कहे भैरूलाल बिचारी॥19॥
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