संतो सतगरू अलख लखाया,
परम प्रकाश ज्ञान पूंज है,
घट भीतर दरसाया।।टेर।।
मन बुद्धि बाणी नहीं जानत,
वेद कहत सकुचाया।
अगम अपार अथाह अगोचर,
नेति नेति जेहि गाया।।1।।
शिव सनकादिक और ब्रह्मा के,
वह प्रभु हाथ नहीं आया।
व्यास वसिष्ठ विचारत हारे,
कोई पार नहीं पाया।।2।।
तिल में तेल काष्ठ में अग्नि,
व्रत तप माही समाया।
सबद में अरथ पदारथ पद में,
स्वर में राग सुणाया।।3।।
बीज में अंकुर तरू शाखा,
पत्र फूल फल छाया।
ज्यूं आतम में परमातम,
ब्रह्म जीव अरू माया।।4।।
कहे कबीर कृपालु कृपा करि,
निज स्वरूप परखाया।
जप तप योग यज्ञ व्रत पूजा,
सब जंजाल छूड़ाया।।5।।
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