मूरत कोर मन्दर में मेली,
वा कई मुखड़े बोले हेती ये।
डोडी जुड़ दरवाजे ऊबी,
बना हुकम नहीं खोले।।1।।
मन्दर में काई ढूंढती फरे मारी हेली,
ले ले हरदा में हर को नाम,
जाल्या में कांई जांकती फरे।।टेर।।
इण काया में गंगा खळके,
भर भर धोबा पीले।
मूरख ने गम कोयने,
राई के ओले परबत डोले।।2।।
नाभ कंवल से नदिया उल्टी,
पांचों कपड़ा धोले।
सुरत सला पर दे फटकारो,
दिल को दागो धोले।।3।।
माणक दान भर्या काया में,
मन छावे जो लेले।
कहे कबीर सुणो भाई,
साधू हर भज लावा लेले।।4।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें