हरि रंग लागा भक्त का भेद भरम भागा।।टेर।।
शब्द गुरा का बाण दिला बिच लागा,
मिट गई सब अंतराई।
एक होय सब इणेसा भागा,
करम कटे सो भरम आगा।।१।।
जब पारब्रह्म सूं प्रीत,
चरण चित लागा।
मिट गया सकल संदेह,
देह का धुप्या दूज का धागा।।२।।
सब सुख हुआ सहर सब सुखिया,
रूम रूम लिव लागा।
वा सुख की किस कूं क्या कहिये,
ज्यू सपना गुंगा का।।३।।
निराकार आकार बीज है,
जड़ चेतन सब सागा।
आप आपका ध्यान धरत है,
कोई हरिजन लिव लागा।।४।।
प्राण पुरूष जब एक मिल होया,
दुरस दर्शवा लागा।
''लिखमा'' लगी अखण्ड सूं यारी,
जब अन्त का भय भागा।।५।।
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