है सुण सुर्ता सुन्दर स्याणी,
प्रसन्न होय पुरुष दस्य थारी,
देह बिच देव दिवानी।।टेर।।
पांच तीन का कर तन सोजा,
काया नगर बसाणी।
अधर दलीचे देव बिराजे,
सर्त नीर्त अगवानी।।1।।
भोली थकी भेद नहीं पायो,
इत उत रही अजाणी।
सेणी हुई तो समझ सुहागण,
गुण वचना गम जाणी।।2।।
घर घर भटकट भली न कहलाई,
कर्मा बन्ध बहुत ठगाणी।
आय मन्दरिये मेल महोले,
पुरुष परस पटराणी।।3।।
सिखर मेल चढ़ शब्दा संगी,
रग रामत रिझाणी।
सुखम सेज बिच प्रीतम परस्या,
महावत माेेेेजां माणी।।4।।
अजब छबि देखी महलन की,
सुन सुन अनहद बाणी।
जहां मरदंग ताल शंख बाजे,
भेर बीण भणकाणी।।5।।
मलि सुर्त निरत सांइत घर आई,
तप दुतिया ताप बुझाणी।
''लिखमाेेे'' कहे अलख लख इण विध,
पतिव्रता परवाणी।।6।।
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