डिगमत डोल भूलमत भगवन्त,
सिंवरण सांची है ठाई।।टेर।।
जाण्यो है तो जोवत रहिये,
किसकूं क्या कहिये भाई।
जाण्या जिनसे दिल खुल मिलिये,
अब सिंवरण की है डाई।।1।।
प्रीत लगी जद परसण हो गया,
दरस्या है हरि दिल मांही।
रूप वरण बिन राम निवाज्या,
निरख निरख निरभय थांही।।2।।
अंवल कंवल बिच सामल साहिब,
दूध घिरत ज्यू जग मांही।
न्यारा निखे सो सन्त है निरभय,
दूर करे दुरमत दाई।।3।।
सहसनाम सर्वज्ञी सोही,
ब्रह्म बोलत के सब मांही।
''लिखमा'' बाबाेे है बहुरंगी,
ज्यूं जाणे हरि जैसा ही।।4।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें