ऐसा एक सतशब्द तत् सारा,
बोलत पुरूष दुरस कर देखो, ओलख धरी इतबारा।।टेर।।
श्रवगत नाथजपाई आत्मा
ज्यांका करो विचारा।
गुरू का शब्द सांच सत् मानो,
अग आणो इकतारा।।१।।
शब्द विचारया ज्याने तारिया,
जीव का शब्द आधारा।
मिट जाय भरम करम कट जावे,
मिलसी मोक्ष द्वारा।।२।।
शब्द संग होय सिखर महलचढ्,
सुण अनहद झनकारा।
शब्द संग निर्भय पद पाया,
अंग आई सुख धारा।।३।।
अनन्त भेद विश्वास साथ,
हरसे सिरजण हारा।
भूल भटक घर में गुरू पाया,
प्राण पुरूष आधारा।।४।।
गोरख शब्द कबीर विचारया,
प्रगट में बहुत पुकारया।
धिपत शब्द की करत संत,
जन उधरया अनन्त अपारा।।५।।
शब्द स्वरूपी वह सबमें व्यापक,
हेरे कोई हरिजन प्यारा।
''लिखमो'' कहे लखे बड़भागी,
सत शब्द इकतारा।।६।।
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