इन विध राम सिमर लो भाई,
मिट सी काल जाल का फंदा प्रगल प्रीत लगाई।।टेर।।
सिमरो साधु भाई शक्ति शारदा,
गणपत लागू पांय।
अणभेत तू मुक्ति रो मारग,
हृदय शुद्ध बताई।।१।।
किन्हा स्नान तीरथ फिर-फिर,
कहुं न पाया सांई।
निश्चल होय निगेकर जोहयो,
परमेश्वर पिंड माही।।२।।
गुरु तेरा नाव मैं न जाणु हो,
पर कहां रहता रघुराई।
सतगुरु भेटिया शब्द पिछाण्या,
साहिब संता माही।।३।।
धर्म ध्यान रा बांधो धोरा,
सींचो सुरत बाई।
रसणा रटो राम गुण राचो,
रहिये हर शरणाई।।४।।
भूला था भवसागर मांही,
सतगुरु सुध बतलाई।
समझ लिखमा हृदय लिवलाओ,
सिमरन करो सदाई।।५।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें